वैज्ञानिकों ने खोज निकाले ब्लैक होल के रहस्य

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ब्रह्मांड में स्थित ब्लैक होल का चित्र लेने के बाद उसका नाम ‘पोवेही’ रखा है। अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय के प्राध्यापक लैरी किमूरा ने यह नाम सुझाया है। पहली बार 8 रेडियो टेलिस्कोप के डाटा से ब्लैक होल की तस्वीर दुनिया के सामने आई है। ब्लैक होल या कृष्ण विवर का यह नामकरण 18वीं शताब्दी के लोक गीत ‘हवाइन’ से किया गया है। इस नाम का अर्थ अतिसुंदर, अथाह, अंधेरी रचना या अंधेरे स्रोत को प्रकाशित करती अनंत रचना है। ब्रह्मांड में मौजूद ब्लैक होल की यह तस्वीर वैज्ञानिकों के लिए एक असाधारण उपलब्धि है। 200 से अधिक शोधकर्ताओं की एक टीम ने अनंत ब्रह्मांड से यह तस्वीर खींची है। कैथरीन बूमैन नाम की एक महिला वैज्ञानिक का भी इस तस्वीर को खंगालने में बड़ा योगदान रहा है। यह महिला खगोलविद् नहीं है, लेकिन कंप्यूटर की खगोलीय भाषा अलगोरिदम की विषेशज्ञ है।
कुछ समय पहले तीन देशों के खगोल वैज्ञानिकों के एक समूह ने ब्रह्मांड के आरंभिक समय में अस्तित्व में आए 83 ब्लैक होल यानी कृष्ण विवरों की गिनती करने में भी सफलता प्राप्त की है। ये विवर या पाताली गड्ढे क्वासर के रूप में ब्रह्मांड में विद्यमान हैं। वैज्ञानिकों के इस समूह में अमेरिका, जापान और ताइवान के वैज्ञानिक शामिल थे। चमकने वाले ये 83 क्वासर अमेरिका के हवाई स्थित उन्नत सुबारू दूरबीन की मदद से देखे गए। यह खोज प्रसिद्ध एस्ट्रोनोमिकल जर्नल में प्रकाशित हुई है। अमेरिका के प्रिंसटन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक माइकल स्ट्रास ने कहा है कि यह बेहद उल्लेखनीय है कि बिग बैंग के तुरंत बाद इतने विशाल कृष्ण विवर बन गए। ये कैसे बने, इसे समझना ब्रह्मांडीय अस्तित्व के लिए एक चुनौती है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इनका निर्माण 13 अरब प्रकाशवर्ष पहले हुआ था। ब्रह्मांड की उत्पत्ति का समय 13.8 अरब साल पहले हुआ माना जाता है। इस नूतन तलाश से पहले 17 क्वासर का पता वैज्ञानिक कर चुके हैं।
ब्रह्मांड की प्रचंड परिधि में अनेक रहस्यमयी पिंड विचरण कर रहे हैं। जिस तरह ब्रह्मांड का विस्तार अनंत है, उसी तरह इसमें अनंत आकाशीय पिंड, तत्व, पदार्थ, गैसें, ग्रह, नक्षत्र, तारे और मंदाकनियां भी हैं। हमारे वैदिक ऋषियों ने इन्हें खंगालने की शुरुआत हजारों साल पहले कर दी थी। अब आधुनिक वैज्ञानिक दो सौ साल से इन्हें खंगालने में लगे हैं। ब्रह्मांड का सबसे बड़ा व प्रमुख रहस्य यह है कि ब्रह्मांड को गतिमान बनाए रखने के जो पदार्थ और ऊर्जाएं हैं, उनका मात्र चार प्रतिशत ही हम अब तक जान पाये हैं। शेष 96 प्रतिशत में 23 प्रतिशत अदृश्य पदार्थ हैं और 73 प्रतिशत अदृश्य ऊर्जा है। सच यह भी है कि जिसे वैज्ञानिक अदृश्य पदार्थ या ऊर्जा कह रहे हैं, वह किस तरह का पदार्थ अथवा ऊर्जा है, इसकी सटीक जानकारी नहीं है।
हालांकि अब जाकर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि कृष्ण विवर में लंबे समय तक गैसों के लगातार एकत्रित होते रहने से ब्लैक होल क्वासर के रूप में परिणत होकर चमकने लगता है। इस अध्ययन से उस कालखंड में कृष्ण विवरों पर गैसों का किस तरह प्रभाव पड़ता था, इस परिप्रेक्ष्य में नई समझ विकसित हुई है। वैज्ञानिकों ने इस खोज में दावा किया है कि जितना अधिक चमकीला क्वासर होगा, आकार में वहां उतना ही विराट विवर होगा। उसकी गहराई भी उतनी ही ज्यादा होगी। वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में प्रति गीगा प्रकाश वर्ष में एक विशाल कृष्ण विवर उपलब्ध है। मंदाकिनी के केंद्र में बनने वाले एक विशालकाय कृष्ण विवर का आकार सूर्य से करोड़ों अथवा अरबों गुना तक बड़ा होता है। सबसे बड़े कृष्ण विवर सुपरमैसिव कहलाते हैं, क्योंकि इनका दृव्यमान 10 लाख सूर्यों से भी अधिक हो सकता है। हमारी निहारिका या आकाशगंगा में जो सुपरमैसिव कृष्ण विवर होता है, उसे सैगिटेरियस-1 नाम दिया गया है। इसके द्रव्यमान का अनुमान 40 लाख सूर्यों के बराबर माना गया है। सभी कृष्ण विवर आकार में बड़े ही होते हों, ऐसा भी नहीं है। एक अणु के बराबर कृष्ण विवर भी होते हैं, लेकिन इनका द्रव्यमान एक बड़े पहाड़ के बराबर होता है। अतएव छोटे से छोटे कृष्ण विवर का आकार भी बहुत बड़ा होता है। विराट ब्रह्मांड में तारों के इर्द-गिर्द गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से ही ग्रह निरंतर परिक्रमा में लगे रहते हैं। इसी कारण सौरमंडल के ग्रह सूर्य की परिक्रमा में लगे हैं। ग्रहों के उपग्रह भी इसी तरह घूम रहे हैं। हालांकि क्वासरों को अब तक ब्रह्मांड में सबसे अधिक तीव्रता से प्रकाशित तथा सबसे दूर स्थित पिंडों अथवा तारों के रूप में जाना जाता रहा है। इसीलिए पहले इन्हें अत्यधिक तीव्र रेडियो या आकाशीय तरंगों के स्रोत के रूप में देखा व जाना गया। नतीजतन इन्हें क्वासर स्टेलर रेडियो सोर्स नाम दिया गया था। कृष्ण विवर के रूप में पहचानने और इनकी तस्वीर लेने की शुरुआत तो अब जाकर हुई है।
कृष्ण विवर यानी यथा नाम तथा गुण। विवर एक ऐसा विशाल पताली गड्ढा है, जिसमें गिरकर कुछ भी वापस नहीं आता है। यहां तक कि प्रकाश भी नहीं। ऐसे गड्ढे या होल को ही कृष्ण विवर कहा गया है। हालांकि स्टीफन हांकिस दावा कर चुके हैं कि गामा किरणें अपनी अधिक ऊर्जा के बल पर इस अंधकूप से बाहर निकलने में सक्षम हैं। भारतीय खगोल वैज्ञानिक डॉ.चंद्रशेखर को जिस अनुसंधान पर नोबेल पुरस्कार मिला था, वह इसी कृष्ण विवर से संबंधित था। उन्होंने माना है कि किसी तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से 1.4 गुना कम है। तब उसकी परिणति श्वेत वामन तारे के रूप में होती है। दूसरी तरफ यदि किसी तारे का द्रव्यमान से 1.4 गुना अधिक हो तो उसकी परिणति कृष्ण विवर के रूप में होती है। यही अधिक द्रव्यमान क्वासर की रचना करता है और यही सूर्य से अधिक तेज रूप में प्रकाशित क्वासर, ब्रह्मांड में जहां-जहां स्थित है, वहां-वहां कृष्ण विवर की उपस्थिति सुनिश्चित करता है। इस नवीनतम खोज का यही प्रमुख संकेत व लक्ष्य है।
सापेक्षता का सिद्धांत देने वाले अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कृष्ण विवर को अति संघनित द्रव्य के द्वारा तीव्र रूप से वक्र यानी टेढ़ा गड्ढा माना है, जिसमें से उल्टी छलांग मारकर कुछ भी बाहर नहीं निकल सकता है। प्रकाश भी नहीं। यह दिखता ही नहीं है। यदि इसमें कोई द्रव्य गिरेगा तब एकबारगी इसमें से गामा किरणें निकल सकती हैं, जिन्हें देखकर कृष्ण विवर की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा इस विवर के चारों तरफ परिक्रमा करते तारों तथा अन्य पिंडों की गति से भी, कृष्ण विवर की स्थिति के द्रव्यमान का अंदाजा लगाते हैं। इसी विधि से वैज्ञानिकों ने विशाल मंदाकनियों के केंद्र में क्वासर और इसी की पृष्ठभूमि में विराट कृष्ण विवर की उपस्थिति मानी है।
ऐसा क्यों है कि कृष्ण विवर में गिरकर वस्तु तो क्या प्रकाश भी लौट नहीं पाता? इस अंधकूप में गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक है कि वहां की एक चम्मच मिट्टी का भार, पृथ्वी के एक करोड़ टन वजन के बराबर है। ब्रह्मांड की इस विराटता को समझते हुए भारतीय मनीषियों ने लिखा है कि ‘किसी से पूछा जाए कि पृथ्वी के सात सागरों में कितनी बूंदे हैं या आकाश में हवा के कितने अणु हैं’ तो क्या इन प्रश्नों के कोई उत्तर दे पाएगा? साफ है नहीं। अंतरिक्ष में तैरते कृष्ण विवर संख्या में कितने हैं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य दो कृष्ण विवरों के टकराने और फिर परस्पर विलय हो जाने से सामने आया है। इस इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी खोज वैज्ञानिकों ने गुरुत्वीय तरंगों का अनुभव किया जाना माना है। प्रकाशीय तरंगों से भिन्न इन गुरुत्वीय तरंगों के अस्तित्व के बारे में बीते सौ साल से अनुमान लगाए जा रहे थे। इनकी सैद्धांतिक परिकल्पना पर विचार सबसे पहले अल्बर्ट आइंस्टाइन ने किया था। उन्होंने 1916 में अपने सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए इन तरंगों के अस्तित्व की जानकारी दी थी। अब लिगो कोलेबोरेशन वेधशाला के वैज्ञानिकों ने कहा है कि दो कृष्ण विवरों के एक अरब 30 करोड़ साल पहले ब्रह्मांड में टकराने से अंतरिक्ष में गुरुत्वीय तरंगे एक विशाल वलय अथवा होल के रूप में विस्तृत होती गईं, जो अंततः 14 सितंबर 2015 को पृथ्वी की सतह पर पहुंची। इन तरंगों की उपस्थित का अनुभव वेधशाला में ‘लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रेविटेशनल बेव आब्जर्नेटरी‘ यंत्र से किया गया। इन तरंगों के पकड़े जाने के बाद ही वेधशाला के निदेशक डेविड रिट्ज ने वाशिंगटन में इस खोज की निर्णायक घोषणा की। वैज्ञानिक पिछले 50 वर्ष से इन्हें खोजने में लगे थे। लेकिन इन तरंगों की संवेदनशीलता को ग्राह्य करने के समुचित व पर्याप्त उपकरण नहीं थे। कालांतर में इन अत्यंत संवेदी उपकरणों को तैयार करने में करीब 25 साल लगे। इन्हीं उपकरणों की मदद से अंतरिक्ष में होने वाली अति सूक्ष्मतम हलचलों को खोजना संभव हुआ है। ये उपकरण भूमि के तल में स्थापित किए गए थे। इन्हें संवेदनशील संसूचक यंत्र के नाम से जाना जाता है। इस खोज के बाद अब यह उम्मीद बंधी है कि इन अंधकूपों के जो रहस्य अब तक अज्ञात थे, वे कुछ वर्षों में ज्ञात कर लिए जाएंगे।


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