युद्ध के विरूद्ध खड़ा हो भारत

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आर.के. सिन्हा

रूस के हमलों से तार-तार हो रहे यूक्रेन से आ रही खबरें और तस्वीरों को देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का दिल दहल सकता है। रूसी सेनाएं लगातार हमले बोल रही हैं। उससे जान-माल की बड़े स्तर पर तबाही हो रही है। विश्व बिरादरी की तमाम अपीलों से बेरपवाह रूस यूक्रेन पर हल्ला बोल रहा है। क्यों नहीं किसी भी मसले का हल वार्ता से निकलता। अगर बातचीत के बाद हल नहीं निकल रहा है, तो समझ लें कि दोनों में से कोई पक्ष शांति और अमन को लेकर गंभीर नहीं है। उन्होंने दुनिया के हर अहम शहर में बने उन कब्रिस्तानों को नहीं देखा जहां पर पहले,दूसरे विश्व युद्ध या फिर किसी अन्य जंग के शहीद चिर निद्रा में हैं। पिछले 100-125 सालों में विभिन्न जंगों में करोड़ों लोगों की जान गई है। आखिर किसी को क्या मिल गया इतने लोगों को मार देने के बाद भी। युद्ध के विरूद्ध साहिर लुधियानवी की कालजयी नज्म के कुछ हिस्सों को पढ़ें:-

“ख़ून अपना हो या पराया हो , नस्ल-ए-आदम का ख़ून है । आख़िर जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में अम्न-ए-आलम का ख़ून है ।आख़िर बम घरों पर गिरें कि सरहद पर रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है…॥”

बेशक, जंग के विचार पर इतना करारा हमला शायद ही किसी अन्य लेखक ने किया हो। अगर आप राजधानी में रहते हैं, तो आप कभी आपको धौला कुआं के करीब दिल्ली वार सिमिट्री में अवश्य जाना चाहिए। यहां पर चौतरफा हरियाली के बीच पहले और दूसरे विश्व युद्ध के योद्धा चिर निद्रा में हैं। ये कब्रिस्तान एक हरा-भरा मैदान सा लगता है,जिसके कुछ भागों में क्रम से योद्धाओं की कब्रें हैं। इन कब्रों पर संगमरमर के पत्थर पर युद्ध में प्राणों की आहुति देने वाले सैनिकों का संक्षिप्त परिचय मिलता है। इन सभी शहीदों की आयु को पढ़कर मन उदास हो जाता है। ये सब 22 से 25 साल तक के हैं। जरा सोचिए कि युद्ध की विभीषका के कारण भरी जवानी में ये सब जान गंवा बैठे। इनके भी माता-पिता होंगे, इनके भी भाई-बहन और अपने करीबी होंगे। दिल्ली वार सिमिट्री में 1951 में इलाहाबाद, कानपुर,देहरादून और लखनऊ से कब्रों के अवशेष यहां पर लाए गए थे। ये सब प्रथम विश्व युद्ध के शहीद थे। इधर ग्यारह सौ से अधिक कब्रें हैं। ये कब्रिस्तान बीच-बीच में आबाद हो जाता है,जब यहां पर पर्यटकों का कोई जत्था आता है। ये जत्थे प्राय: ब्रिटेन, कनाडा या अमेरिका के नागरिकों के ही होते हैं।दिल्ली वार सिमिट्री में गोरखा रेजिमेंट से जुड़े अंग्रेज सैनिकों की भी समाधियां है। आपको इस तरह के कब्रिस्तान भारत के कई शहरों के अलावा सिंगापुर, थाईलैंड वगैरह में भी मिलेंगे। सिंगापुर के कब्रिस्तान में पंजाब रेजीमेंट के सैकड़ों सिपाहियों की कब्रें हैं,जो पहले या दूसरे विश्व युद्ध में शहीद हुए थे।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन कह रहे हैं कि रूस दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में सबसे बड़ी जंग की तैयारी कर है। इससे पहले दुनिया दो विश्व युद्ध झेल चुकी है। उन दोनों जंग में जितनी तबाही मची थी, वो तीसरे विश्व युद्ध में मचने वाली उससे कहीं विनाशकारी तबाही की भयानक तस्वीर दिखाती हैं। दोनों विश्व युद्ध में दुनिया में न सिर्फ करोड़ों लोगों की मौत हुई थी, बल्कि, ज्यादातर देशों में भुखमरी, बेरोजगारी और भारी महंगाई जैसे हालत भी बन गए थे। सारी दुनिया देख रही है कि यूक्रेन पर रूस के ताबड़तोड़ हमलों से तबाही मच रही है। इस युद्ध और तबाही के बीच यूक्रेन के आम नगरिक डरे-सहमे हुए हैं। हमलों की वजह से टूटे-बिखरे घर और जगह-जगह लगी आग से बचते-भागते लोग दिखाई दे रहे हैं। बुजुर्गों से लेकर बच्चों की बेबसी उनकी भीगी आंखों में साफ देखा जा सकता है । यानी यूक्रेन में स्थिति बेहद भयावह हो चुकी है।

मैंने 1971 का युद्ध एक पत्रकार के रूप में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) जाकर कवर किया था। वहां पर मैंने युद्ध से हुई तबाही को अपनी आंखों से देखा था। हजारों-लाखों बेकसूर इंसान शहीद हुए थे और असंख्य विकलांग। लाखों बॅंगाली बच्चियों और महिलाओं का पाकिस्तानी सैनिकों ने बेरहमी से बलात्कार किया था! हम उस युद्ध में विजयी तो हुए थे पर किस कीमत पर। उस जंग के शहीदों के अलावा भारत की 1948 और 1965 में पाकिस्तान से तथा 1962 में चीन से जंग हो चुकी है। इसके अलावा, कारगिल और श्रीलंका में भी भारतीय सेना के हजारों शूरवीरों ने देश के लिए अपनी जान का नजराना पेश किया है। लेकिन, जरा उन परिवारों के बारे में भी सोचा जाए, जिन का कोई सदस्य जंग में शहीद होता है। इन जंगों में शहीद हुए जवानों के नाम इंडिया गेट में बने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में अंकित हैं। इंडिया गेट तो पहले विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में ही बना था। इंडिया गेट के युद्ध स्मारक में उन वीरों के नाम भी अंकित हैं जो श्रीलंका में 1987 में भारतीय शांति रक्षा सेना (आईपीकेएफ) का अंग थे। उन शहीदों में राजधानी के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज (यूसीएमएस) में पढ़े मेजर (डॉ) अश्वनी कान्वा भी थे। वे भारतीय शांति रक्षा सेना (आईपीकेएफ) के साथ 1987 में जाफना, श्रीलंका गए थे। वे 3 नवंबर,1987 को अपने कैंप में घायल भारतीय सैनिकों के इलाज में जुटे हुए थे। उस मनहूस दिन शाम के वक्त उन्हें पता चला कि हमारे कुछ जवानों पर कैंप के बाहर ही हमला हो गया है। वे फौरन वहां पहुंचे। वे जब उन्हें फर्स्ट एड दे रहे थे, तब आसपास छिपकर बैठे लिट्टे के आतंकियों ने उन पर गोलियां बरसा दीं। उन्हें तीन गोलियां लगीं। दूसरों का इलाज करने वाले को फर्स्ट एड देने वाला कोई नहीं था। काश, लिट्टे ने जेनेवा संधि का उल्लंघन न किया होता तो वे शहीद न होते। बेहद हैंडसम मेजर अश्वनी की शादी के लिए लड़की ढूंढी ही जा रही थी, जब वे शहीद हुए। वे कॉलेज के टॉपर थे। इस उदाहरण को देने का मकसद यह है कि युद्ध में अनगिनत मासूम लोग भी मारे जाते हैं। यह स्थिति बेहद चिन्तनीय है।

बुद्ध और गांधी के देश भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त करवाने की दिशा में सक्रिय पहल करनी होगी। इस संकट से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत अछूता नहीं रह सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी पहल करते हुए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर बातचीत की और शांति की दिशा में कदम बढ़ाने को कहा। मोदी और पुतिन के बीच करीब 20 मिनट तक बातचीत हुई। भारत को युद्ध के विरुद्ध माहौल बनाने की दिशा में त्वरित और प्रभावी पहल करनी ही चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)


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