बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः कैसी मुश्किलों से गुजरी फ़िल्म मीरा
हेमा मालिनी के मन में बचपन से ही भगवान कृष्ण के प्रति अपार श्रद्धा थी। एक तमिल फ़िल्म निर्माता द्वारा अपनी फ़िल्म में लेने और कुछ समय बाद बिना बताए निकाल देने के बाद महसूस हुए अपमान के बाद उन्होंने श्री कृष्ण से ही इस अपमान की भरपाई करने की प्रार्थना की थी ..और कुछ दिनों बाद ही उन्हें अपनी पहली फ़िल्म सपनों का सौदागर मिल गई थी। कुछ समय बाद जब उनकी गुरु इंदिरा मां ने उन्हें किसी फ़िल्म में कृष्ण भक्त मीरा का रोल करने को कहा तो मानो उन्हें मन की मुराद मिल गई। इस बीच फ़िल्म निर्माता प्रेमजी उनके पास आए तो हेमा ने उनके सामने अपने मन की बात रखी। प्रेमजी तुरंत तैयार हो गए और उन्होंने गुलज़ार को लेखक और निर्देशक के रूप में अनुबंधित कर लिया। लेकिन “मीरा” फ़िल्म के मुहूर्त वाले दिन से ही फिल्म बनाने में नई-नई परेशानीयाँ आने लगीं। सबसे बड़ी मुश्किल यह हुई कि लता मंगेशकर ने फिल्म में गाना गाने से मना कर दिया। कारण यह था कि उन्होंने हाल ही में मीरा के भजन वाली एक प्राइवेट एल्बम तैयार की थी और वह उसके निर्माताओं को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती थीं और मीरा के भजनों को दोबारा भी नहीं गाना चाहती थीं।
लताजी के कारण संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल भी फ़िल्म से हट गए क्योंकि वे लताजी के बगैर काम करना नहीं चाहते थे। तब पंडित रविशंकर को इस फिल्म के संगीत के लिए तैयार किया गया। उन्होंने वाणी जयराम को गाने के लिए तैयार किया, लेकिन हेमा मालिनी इस बड़े बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थीं क्योंकि अभी तक उनकी सारी फिल्मों के लिए उनके गीत लता जी ने ही गाए थे और उनके व्यक्तित्व पर उनकी आवाज बहुत फबती भी थी। उन्होंने लता जी से निजी तौर पर मिलकर भी बात की, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुईं। दूसरी मुश्किल एक अच्छे कॉस्टयूम डिजाइनर को ढूंढने की थी क्योंकि मीरा की विश्वसनीयता के लिए जरूरी था कि उस काल का पहनावा बहुत सावधानी के साथ तैयार किया जाए क्योंकि एक राजकुमारी से, कृष्ण भक्ति में रंक बनने की यात्रा में उनके कपड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनकी श्रद्धा भक्ति और भव्यता को भी बनाए रखें जाने के लिए यह ज़रूरी था। यह तलाश पूरी हुई प्रख्यात कॉस्टयूम डिजाइनर भानु अथैया के रूप में (आगे चलकर तो उन्हें गांधी फ़िल्म के लिए ऑस्कर अवार्ड मिला)।
इस फिल्म के लिए उन्होंने मीरा के जीवन के अलग-अलग चरणों के लिए अलग-अलग शेड्स के कपड़े तैयार किए। इतना ही नहीं उन्होंने गले में पहनने वाली तुलसी माला का आकार और उसकी लंबाई भी तय की। अगली बड़ी परेशानी हुई फ़िल्म में उनके पति राणा साहेब की भूमिका के लिए नायक चुनने में। क्योंकि यह एक कमजोर पुरुष का चरित्र था इसलिए इसे कोई नहीं करना चाहता था। अंतत: विनोद खन्ना इस भूमिका के लिए तैयार हुए जिन्होंने हाल ही में गुलज़ार के साथ अपनी पहली फ़िल्म “मेरे अपने” की थी।
एक समस्या हेमा मालिनी को दिया जाने वाला मेहनताना भी था। वे उस समय की बड़ी स्टार थीं। इसका हल निकाला गया। उनको प्रतिदिन काम के हिसाब से पैसे देने के रूप में। फिल्म 1979 में रिलीज हुई। हालांकि बॉक्स ऑफिस पर यह फ़िल्म खास सफल नहीं रही। असफलता का एक कारण शायद यह था कि आम जनता के मन में मीरा की छवि केवल एक संत की थी और मीरा के पिछले जीवन के बारे में उनको न ज्यादा पता था और न वह जानना चाहते थे। जबकि हेमा को अपने द्वारा की गई सभी फिल्मों में “मीरा” आज भी सबसे ज्यादा पसंद है। उन्हें इसका क्लाइमैक्स वाला सीन बहुत पसंद है जहां मीरा जंजीरों से बंधी हुई हैं और उन्हें राज दरबार में पेश किया जाता है। जब वे दरबार में प्रवेश करती हैं और उनकी विशालकाय छाया गुरु के ऊपर पड़ती है और वह डर जाते हैं।
चलते चलतेः इस फ़िल्म में शम्मी कपूर ने मीरा के पिता राणा राठौर की भूमिका निभाई थी, जबकि 1971 में आई फिल्म “अंदाज” में हेमा उनकी नायिका थीं यानी उनके साथ उनकी जोड़ी का यह अंत था तो विनोद खन्ना के साथ नई जोड़ी की शुरुआत। हां एक बात और प्रतिदिन शूटिंग खत्म होने के बाद हेमा को जो लिफाफा मेहनताने के रूप में प्रेमजी दिया करते थे वह उसे बिना खोले अलमारी में रख देती थीं। भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपनी श्रद्धा और गुरु मां के प्रति प्यार के कारण इस फ़िल्म के लिए जो भी राशि उन्हें मिली उन्होंने उसे आशीर्वाद समझ कर अपने पास रख लिया और आज तक खर्च नहीं किया है।
(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)