निश्चित थी प्रवीण तोगड़िया की विदाई: अवधेश कुमार

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विश्व हिन्दू परिषद के चुनाव ने इतनी सुर्खियां यदि पाईं हैं, तो इसका मूल कारण है लंबे समय तक इसके कार्यकारी अध्यक्ष रहे डॉ. प्रवीण तोगड़िया की विदाई। हालांकि विहिप ने उनको संगठन से निकाला नहीं है, उन्होंने स्वयं को संगठन से अलग कर लिया है। अध्यक्ष के रूप में न्यासीमंडल द्वारा सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे के निर्वाचन के बाद उन्होंने घोषणा की कि चार दशक के बाद अब मैं विहिप में नहीं हूं। जिस तरह से पिछले कुछ समय से डॉ. प्रवीण तोगड़िया अपनी भूमिका निभा रहे थे उससे यह साफ लग रहा था कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। वे संगठन की धारा के साथ नहीं चल पा रहे हैं। यह भी साफ दिख रहा था। संगठन भी उनके साथ अनेक अवसरों पर खड़ा नहीं दिखता था, यह भी छिपा तथ्य नहीं है। अहमदाबाद में रहते हुए जब उन्होंने राजस्थान एवं गुजरात पुलिस दल द्वारा उनको पकड़ने के लिए आवास पर छापा मारने का आरोप लगाया, तो विहिप की ओर से कोई बयान नहीं आया। पूरे देश की मीडिया में यह चर्चा का विषय था, पर विहिप इस पर पूरी तरह खामोश रहा। चुनाव से कुछ दिनों पहले जब प्रवीण तोगड़िया दिल्ली कार्यालय आए तो उन्होंने बयान दिया कि उनसे मिलने आए कुछ लोगों को प्रवेश द्वार पर खड़े बाउंसरों ने रोका और उनके साथ दुर्व्यवहार किया। वह भी मीडिया की सुर्खियां बना। इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। बाउंसर ने उनसे मिलने आए लोगों के साथ वाकई दुर्व्यवहार किया या नहीं ये और बात है, लेकिन अगर उन्होंने आरोप लगाया तो इसका अर्थ यही था कि संगठन के अंदर अब उनके साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। जो व्यक्ति स्वयं को विहिप का पर्याय मानता रहा हो उसे लगे कि उसकी तनिक भी अनदेखी हो रही है तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी। उन्होंने चुनाव पर भी प्रश्न उठा दिया। गलत लोगों को मतदाता बनाने का आरोप लगाया। इन सबसे साफ था कि विहिप से तोगड़िया काल का अंत होने वाला है। नए अध्यक्ष ने जिन अधिकारियों को नियुक्त करने का प्रस्ताव किया और जिसे न्यासी मंडल ने अनुमोदित कर दिया है उनमें अब कोई ऐसा नहीं है, जिसे तोगड़िया का मुखर समर्थक कहा जा सके। इससे उनको धक्का लगना स्वाभाविक है। हालांकि कुछ अधिकारियों के अलावा वे सारे अधिकारी अपने पद पर कायम रहे जो पहले से थे। तो यह नहीं कहा जा सकता है कि विहिप का पूरा चेहरा बदल गया है। प्रवीण तोगड़िया को संगठन पर आरोप लगाने की बजाय स्वयं कई बिन्दुओं पर आत्ममंथन करना चाहिए था। इसके बजाय वो एक विद्रोही की तरह रामजन्म भूमि के लिए उपवास पर अड़े हुए हैं। प्रवीण तोगड़िया को यह क्यों समझ नहीं आ रहा है कि उनके विरुद्ध संगठन में शीर्ष स्तर पर असंतोष पैदा हो गया था। यह असंतोष कई कारणों से था। सब जानते हैं कि राघव रेड्डी घोषित अध्यक्ष अवश्य थे, लेकिन निर्णय की वास्तविक शक्ति प्रवीण तोगड़िया के हाथों ही थी। अशोक सिंघल के गुजरने के बाद से ही वे सर्वेसर्वा थे। देश और दुनिया अशोक सिंघल के बाद विहिप को उनके नाम से ही जानती थी। यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी। इसे संभाले रखना और संगठन को सही दिशा देने की जिम्मेवारी उनकी ही थी। इसमें वे चूके हैं। सच यह है कि अशोक सिंघल के बाद विहिप एक श्रीहीन संगठन होता जा रहा था। संगठन की भूमिका क्या है, वह कर क्या रहा है आदि प्रश्न कार्यकर्ता उठाते थे और इसका कोई निश्चयात्मक उत्तर नहीं मिलता था। आज यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अशोक सिंघल के विराट व्यक्तित्व के साये में प्रवीण तोगड़िया इतने दिनों तक नेतृत्व मंडली में कायम रहे। कोई समस्या आई तो सिंघल उसे निपटा देते थे। इनके खिलाफ शिकायतों का भी वे निवारण करते थे। संगठन की समस्याओं को सुलझाना, उसके कार्यक्रम तय करने से लेकर से क्रियान्वित करने तक में प्रवीण तोगड़िया की भूमिका अशोक सिंघल के सहयोगी के रूप में ही थी। अशोक सिंघल का कद पूरे संघ परिवार के अंदर इतना बड़ा था कि उनके विरूद्ध कोई खड़ा होने का साहस नहीं कर पाता था। सबको पता था कि प्रवीण तोगड़िया के सिर पर उनका हाथ है, इसलिए इनके विरुद्ध भी कोई खुलकर सामने नहीं आता था। अशोक सिंघल के जाने के बाद प्रवीण तोगड़िया की ही संगठन को संभालने तथा उसे दिशा देने की जिम्मेवारी थी। क्या वे इस कसौटी पर खरे उतरे? किसी ने यह आरोप नहीं लगाया है कि वे ईमानदार नहीं हैं या संगठन के मूल विचार हिन्दुत्व के प्रति निष्ठा में कोई कमी थी। किंतु जिस तरह के नेतृत्व की आवश्यकता विहिप को थी वो तोगड़िया नहीं दे सके। दूसरे, संघ के शीर्ष नेतृत्व के साथ भी उनका उस तरह का स्वाभाविक संवाद नहीं था जैसा होना चाहिए था। विहिप संघ का ही एक अनुषांगिक संगठन है। तो फिर अन्य अनुषांगिक संगठनों की तरह इसके नेता को संघ के साथ सामंजस्य बिठाकर काम करना चाहिए। अशोक सिंघल की बात अलग थी। वे इतने वरिष्ठ थे। बावजूद उन्होंने कभी स्वच्छंद आचरण किया हो ऐसा सार्वजनिक तौर पर कभी नहीं दिखा। तोगड़िया के बारे में माना जाने लगा था कि वे एक संगठन परिवार के नेता की बजाय स्वतंत्र आचरण के अभ्यस्त हो गए थे। अगर ऐसा है तो फिर उनकी विदाई निश्चित थी। संघ के अनुषांगिक संगठनों में संघ नेतृत्व की स्वीकृति के बिना कोई बड़ा निर्णय कैसे हो सकता है? विहिप जैसे संगठन में नेतृत्व परिवर्तन अगर हुआ है, तो यह संघ का निर्णय माना जाना चाहिए। क्या इतने वरिष्ठ नेता होते हुए प्रवीण तोगड़िया इस बात को नहीं समझते? अगर वे नहीं समझते तो यही कहा जाएगा कि इतने लंबे समय तक संगठन में रहते हुए भी वह संगठन के व्यक्ति नहीं हो सके। संगठन कोई भी हो, उसके चेहरे में बदलाव तो होता ही है। होना भी चाहिए। एक ही व्यक्ति पूरे जीवन भर संगठन के शीर्ष नेतृत्व पर बैठा रहे, यह स्वस्थ परंपरा नहीं होगी। प्रवीण तोगड़िया करीब 40 वर्षों से संगठन में थे, जिसमें 32 वर्ष वे पद पर रहे। 32 वर्ष कोई छोटी अवधि नहीं होती। ऐसे लोगों को तो स्वयं अपने को पीछे रखकर नए लोगों के लिए जगह बनानी चाहिए। इससे अपना सम्मान भी बढ़ता है, आपका कद और प्रभाव कायम रहता है तथा यश मिलता है सो अलग। अशोक सिंघल विहिप के सब कुछ थे, लेकिन एक उम्र के बाद उन्होंने अलग-अलग चेहरों को आगे बढ़ाया और उनका मार्गदर्शन करते रहे। प्रवीण तोगड़िया भी उनमें से एक थे। यही परंपरा तोगड़िया को भी आगे बढ़ाना चाहिए था। ऐसा करते तो आज उनका कद और प्रभाव कायम रहता। किंतु लगता है, यह उनके चरित्र का अंग नहीं था। विद्रोही बनकर कोई किसी संगठन में नहीं रह सकता। अगर संगठन कुछ गलत कर रहा है, नेतृत्व गलत रास्ते पर है तो उसके विरुद्ध आवाज उठाना ही चाहिए। सच कहा जाए तो यह बात समझ से परे है कि संघ परिवार का इतना वरिष्ठ नेता संगठन का सामान्य सूत्र तक नहीं समझ पा रहा। जो परिवर्तन हो रहा है उस पर संयत रुख अपनाने की जगह विद्रोह का झंडा उठाना एक अनुशासित कार्यकर्ता का लक्षण तो नहीं हो सकता। हो सकता है आपके साथ कुछ लोग आ जाएं। किंतु उनकी संख्या उतनी नहीं हो सकती कि आप स्वयं को एक शक्तिशाली स्तंभ के रूप में पुनर्स्थापित कर सकें। दूसरे, कुछ समय तक मीडिया भी आपको महत्व दे सकता है लेकिन बाद में आप महत्वहीन हो जाएंगे। फिर क्या केवल पद रहने तक ही हम संगठन के भाग रहते हैं? क्या पद से हटने के साथ संगठन से हमारा संबंध खत्म हो जाता है? ये दोनों प्रश्न आज प्रवीण तोगड़िया से अवश्य पूछा जाएगा। ऐसा नहीं है कि नए अध्यक्ष के साथ जो पदाधिकारी बनाए गए हैं, वो पूरी तरह नेतृत्व की कसौटी पर खरे उतरेंगे। उनका परीक्षण होना अभी शेष है। संघ को भी यह विचार करना चाहिए कि अशोक सिंघल के जाने के बाद विहिप जैसे बड़े संगठन के अनुरूप नेतृत्व विकसित करने की आवश्यकता है। किंतु प्रवीण तोगड़िया के लिए यही कहा जा सकता है कि वो होने वाले बदलाव को स्वीकार करें और उसके साथ चलें। चूंकि वे ऐसा करने को तैयार नहीं है, इसलिए उनके भविष्य के बारे में अभी कुछ भी कहना कठिन है। (हिन्दुस्थान समाचार)


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