धूमिल न हो चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता

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आचार संहिता के उल्लघंन को लेकर इसबार चुनाव आयोग में शिकायतों का अंबार लगा हुआ है। शिकायतें देखकर आयोग भी सकते में है। ज्यादातर शिकायतें विपक्षी दलों से हैं। शिकायतों का निदान नहीं होने पर वह चुनाव आयोग की समूची कार्यशैली को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। निष्पक्षता से लेकर पोलिंग में गड़बड़ियां, मतदान के दिन ईवीएम में खराबी, बेलगाम नेताओं पर समय पर कार्यवाई न करना आदि के आरोप लग रहे हैं।

मौजूदा लोकसभा चुनाव में आयोग शिकायतों से पटा हुआ है। चुनावी रैलियों में उम्मीदवार जमकर विभाजनकारी जहरीले शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूं कहें कि नेताओं ने सभी सीमाएं लांघ डाली हैं लेकिन चुनाव आयोग मूक-बधिर बनकर देख रहा है। चुनावी समर में नेताओं द्वारा आचार संहिता का खुलेआम उल्लधंन किया जा रहा है। जिसपर कोर्ट को दखल देकर आयोग को कार्रवाई के लिए निर्देश देना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही चुनाव आयोग ने चौथे चरण के दौरान कुछ नेताओं पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगाया था, जबकि खुद कार्रवाई का निर्णय नहीं ले सका। इलेक्शन के दौरान आचार संहिता लागू करने का मुख्य मकसद चुनावी अपराध व भ्रष्टाचार को रोकना होता है। इसमें अलग-अलग समुदायों के बीच नफरत पैदा करना, किसी उम्मीदवार पर निजी टिप्पणी करना और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए किसी नई परियोजना का ऐलान या घूस देना शामिल होता है। इसके उल्लंघन पर आयोग के पास कानूनी की जगह केवल प्रतीकात्मक कार्रवाई का विकल्प होता है।

दरअसल, भारत निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त एवं अर्ध-न्यायिक संस्थान है। आयोग के अधीन तमाम ऐसे कारगर अधिकार हैं, जिसके बल पर वह किसी पर कार्रवाई कर सकता है। करीब सत्तर साल पहले जब आयोग का गठन किया गया था तो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से विभिन्न प्रातिनिधिक संस्थानों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था। पर, कुछ वर्ष बाद आयोग को स्वतंत्र कर दिया गया और चुनाव प्रणाली के लिए आजाद कर दिया था, जिसमें किसी अन्य संस्था या प्रतिनिधि का हस्तक्षेप नहीं रहा। कुछ सालों बाद आयोग की इसी निष्पक्षता पर आरोप लगने शुरू हो गए हैं। सत्ता पक्ष और चुनाव आयोग के बीच गठजोड़ पर विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस व अन्य सियासी पार्टियां सीधे आरोप लगा रही है कि आयोग केंद्र सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहा है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा चुनाव आयोग से मिलकर उनके करीब तीस लाख वोटरों के नाम मतदाता लिस्ट से कटवा दिए हैं। इसपर आयोग ने केजरीवाल की शिकायत पर जवाब दिया था कि दिल्ली में जब बीएलओ वोटर लिस्ट बनाने जाए तो वह अपने लोगों को बीएलओ को साथ भेजें, जिससे उनको तसल्ली हो जाएगी। हालांकि ऐसे सभी आरोपों पर आयोग ने सामने आकर जवाब दिया है लेकिन कोई मानने को राजी नहीं। आयोग पर सबसे बड़ा आरोप ईवीएम हैकिंग को लेकर लग रहा है। इस आरोप को मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा खुद नकारते हैं और कहते हैं कि ईवीएम की निष्पक्षता बनी रहे, इसके लिए 2006 में हाई लेवल टेक्निकल कमेटी बनाई गई थी। जबकि वर्तमान में एक और टेक्निकल कमेटी बनाई गई है जो पूरे मामलों की निगरानी करती है।
चौतरफा आरोपों का सामना कर रहे आयोग ने साफ किया है कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं हो सकती। लोकसभा चुनाव होने के पूर्व भी आयोग ने सभी पार्टियों को चैलेंज किया था कि कोई भी पार्टी आए और ईवीएम मशीनों को हैक करके दिखाए। आयोग ने अपनी सफाई में कहा है कि मौजूदा समय में करीब सात सौ कर्मचारियों का यह आयोग निष्पक्ष तरीके से सभी विधानसभा और लोकसभा चुनाव को संपन्न कराता है। इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाना गलत है। ईवीएम को लेकर आरोप बेबुनियाद हैं। खैर, एक बात यह भी ठीक है जब पार्टियां चुनावों में हार जाती हैं तो अपनी हार की टीस चुनाव आयोग पर ही निकालती हैं। जबकि देखा जाए तो मौजूदा चुनाव आयोग पहले के मुकाबले काफी मजबूत है। आयोग में वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त होते हैं। सन 1989 तक केवल एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित यह एकल सदस्यीय निकाय हुआ करता था। लेकिन तमाम आयोपों के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि एकबार फिर से समूचे आयोग की कार्यप्रणाली की समीक्षा होनी चाहिए। आयोग के अधीन अधिकारों को उपयुक्त समय पर बिना किसी भेदभाव के प्रयोग किया जाना चाहिए। कार्रवाई को लेकर आयोग किसी के साथ कोई पक्षपात न करे। सामने चाहें सत्ता पक्ष हो या विपक्षी दल।

संवैधानिक और कानूनी तौर पर आयोग के पास कई ऐसी ताकतें है, जिसके जरिए वह राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों पर आचार संहिता के उल्लंघन को लेकर उन्हें चुनाव लड़ने से रोक सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए अधिकार मुहैया कराए गए हैं। इनमें पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए चुनावी आचार संहिता बनाना और इसे लागू कराना भी शामिल है। यह संहिता चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही लागू हो जाती है और इससे जुड़ी प्रक्रिया पूरी होते ही यह खत्म भी हो जाती है। इसके दायरे में केंद्रीय या राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थाएं, संगठन, समिति और आयोग आदि आते हैं। समय की दरकार है चुनाव के दौरान आयोग को मजबूरी नहीं, बल्कि मजबूती से ताल ठोकनी चाहिए। आयोग को कोई सफेद हाथी न बोले इसके लिए और सशक्त होने की जरूरत है। ये तय है, अगर आयोग की विश्वसनीयता धूमिल हुई तो चुनाव प्रणाली में अनिमितताओं के खतरे बढ़ जाएंगे।


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