दो सीटों से चुनाव लड़ना कितना उचित

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उत्तर प्रदेश और केरल की दो सीटों से चुनाव लड़ेंगे। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एके एंटोनी ने रविवार को जब इस आशय की घोषणा की तो कयासों का बाजार गर्म हो गया। वे अमेठी के अलावा उत्तरी केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि अमेठी में उन्होंने अपनी हार अभी से स्वीकार कर ली है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अमेठी से हारी स्मृति ईरानी ने जिस तरह अमेठी का पांच साल तक दौरा किया। वहां के विकास में अपना योगदान किया, उससे राहुल गांधी अंदर से घबराए हुए हैं। केरल और कर्नाटक कांग्रेस ने तो केवल उनसे अपने राज्य से चुनाव लड़ने का आग्रह भर किया था। लेकिन इससे राहुल गांधी की तो मनचाही मुराद पूरी हो गई। वायनाड सीट इसलिए भी अहम है कि वह तीन राज्यों केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से जुड़ी है। वायनाड मुस्लिम बहुल सीट भी है। सवाल यह है कि एक ओर तो राहुल गांधी अपने को हिंदू साबित करते घूम रहे हैं। मंदिरों में पूजा कर रहे हैं। कपड़े के ऊपर जनेऊ पहन रहे हैं। दूसरी ओर उन्हें हिंदुओं पर भरोसा ही नहीं। अगर भरोसा होता तो वे केरल की ऐसी सीट का चयन करते जहां ज्यादातर हिंदू हों। उन्होंने अपने लिए ऐसी सुरक्षित सीट का चयन करने की केरल कांग्रेस को सलाह दी थी जहां विजय की राह में कोई रोड़ा नजर न आए। वैसे राहुल गांधी अगर 2014 के लोकसभा चुनाव की परिस्थितियों पर विचार करते तो उनकी समझ में आ जाता कि जनादेश की ताकत सबसे बड़ी होती है। जनता काम देखकर ही वोट करती है। 2009 के लोकसभा चुनाव में यहां कांग्रेस उम्मीदवार एम. आई. शानावास 1.53 लाख से ज्यादा मतों के अंतर से जीते थे, जबकि 2014 में उनकी जीत का अंतर सिर्फ 20 हजार रहा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बाद केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी राहुल के दस निर्णय पर पर तंज कसा है। रविशंकर प्रसाद ने तो यहां तक कह दिया है कि कुछ लोग चुनावी हिंदू होते हैं। भाजपा ने अभी यह सीट अपने सहयोगी दल को दे रखी है। संभव है कि वह राहुल गांधी के मुकाबले अपना कोई कद्दावर नेता उतारे। ऐसी स्थिति में उसे अपने सहयोगी दल के लिए कोई और सीट देनी पड़ सकती है।
सीपीआई के युवा नेता एलडीएफ के पी. पी. सुनीर से तो उनकी टक्कर होनी है। वायनाड संसदीय क्षेत्र में वायनाड और मलप्पुरम जिलों की 3-3 विधानसभा सीटें और कोझिकोड की एक विधानसभा सीट शामिल है। इस संसदीय क्षेत्र में मुसलमान मतदाताओं की संख्या सर्वाधिक है। यूडीएफ की दूसरी सबसे बड़ी साझेदार इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का इस क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। इस सीट के तहत मलप्पुरम जिले से ताल्लुक रखने वाली 3 विधानसभा सीटों और कोझीकोड की एक विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम लीग एक बड़ी ताकत है। वायनाड जिले में हिंदू आबादी 49.7 प्रतिशत है, जबकि ईसाई और मुस्लिम यहां क्रमशः 21.5 और 28.8 प्रतिशत हैं। हालांकि, मलप्पुरम में 70.4 प्रतिशत मुस्लिम, 27.5 प्रतिशत हिंदू और 2 प्रतिशत ईसाई हैं। सवा 13 लाख मतदाताओं वाली वायनाड संसदीय सीट पर 56 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। भले ही कांग्रेस को मुस्लिमों से कुछ अधिक अपेक्षा हो लेकिन मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक पार्टी बताने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू यहां के मुसलमानों को खटकते जरूर हैं। राहुल गांधी के लिए वायनाड सीट निश्चित करने से पहले कांग्रेस आलाकमान ने मुस्लिम लीग सुप्रीमो पी. एच. शिहाब थंगल से बातचीत की। इसके मूल में कहीं न कहीं, यह बात जरूर रही होगी कि अगर मुस्लिम लीग को नेहरू का पुराना नस्तर याद आ गया तो क्या होगा। केरल में अनुसूचित जाति और जनजाति आबादी वायनाड जिले में ही सबसे ज्यादा है। जिले की हिंदू आबादी में 35.4 प्रतिशत अनुसूचित जाति से है जबकि अनुसूचित जाति के लोग भी इस जिले मे 7.6 प्रतिशत हैं। राहुल को लगता है कि वे दलितों को भी अपने पक्ष में कर सकते हैं। वैसे अगर भाजपा ने यहां अपना कद्दावर नेता उतार दिया और एलडीएफ के पी. पी. सुनीर ठीक से चुनाव लड़े तो यहां भी राहुल की नैया डगमग हो सकती है। रही बात दो जगह से चुनाव लड़ने की तो अगर वे दोनों जगह से चुनाव लड़ते हैं और जीतते हैं तो इससे उन्हें एक जगह से सीट छोड़नी होगी। वे तो अपना उत्तर-दक्षिण का समीकरण साध लेंगे लेकिन यह उस क्षेत्र के मतदाताओं के साथ विश्वासघात होगा जिस सीट को वे छोड़ेंगे। साथ ही उस सीट पर उपचुनाव का व्यय भार भी इस देश को उठाना पड़ेगा जो उचित नहीं है।
सोनिया गांधी भी 1999 में बेल्लारी और अमेठी से चुनाव जीती थीं। बेल्लारी सीट उन्होंने छोड़ दी थी। वर्ष 2004 में वे अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ी थीं। अमेठी सीट उन्होंने छोड़ दी थी। जिस पर राहुल गांधी चुनाव जीते थे। बड़े नेताओं का दो जगहों से चुनाव लड़ना आम बात है। अटल बिहारी वाजपेयी 1957 में तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़े थे। जीते केवल बलरामपुर संसदीय सीट से थे। अटल बिहारी वाजपेयी 1991 के आम चुनाव में लखनऊ और मध्य प्रदेश की विदिशा सीट से चुनाव लड़े और दोनों ही जगह से जीते। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ सीट के साथ-साथ गांधीनगर से चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में गुजरात के बड़ोदरा और उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चुनाव लड़ा था और दोनों जगहों से चुनाव जीते थे। बाद में बड़ोदरा सीट उन्होंने छोड़ दी थी। इसके पीछे उनकी सोच गुजरात और उत्तर प्रदेश ही नहीं, उससे सटे बिहार में अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की थी। इस प्रयास में वह बहुत हद तक सफल भी हुए। राहुल गांधी भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। वे उत्तर प्रदेश ही नहीं, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक को भी साधना चाहते हैं। इस बहाने वे अपनी अखिल भारतीय छवि बनाना और स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं लेकिन उन जैसे नेताओं को यह भी सोचना होगा कि उन्हें मतदाताओं पर विश्वास करना है। एक लोकसभा क्षेत्र में चुनाव कराने पर कितना खर्च होता है, इस बाबत सोचना है। जनता का एक पैसा भी बेकार न हो, इस पर चिंतन करना है। किसी भी नेता को अगर दो जगहों से चुनाव लड़ना है तो उसे उपचुनाव पर होने वाले खर्च की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। अच्छा होता कि अपने सुविधा के संतुलन की राजनीति से नेता बचते और देश के निर्णय पर यकीन करते। 


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