डाॅ.अम्बेडकर एक अभिनव मूल्यांकन
डाॅ. अम्बेडकर ने विदेशी विचारों, संगठनों और विभाजनकारी प्रेरणाओं से सदा दूरी रखी। देश-विदेश में ऐसी शक्तियां थीं जो डाॅ. अम्बेडकर को फूटपरस्ती की ओर बढ़ाना चाहती थीं। किन्तु हिन्दू समाज की कुरीतियों, उसके प्रति कटुता के बावजूद डाॅ. अम्बेडकर वैश्विक सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान बने रहे।
विदेशियों द्वारा भारतीय समाज की धूर्ततापूर्ण, स्वार्थपरक आलोचना करने पर भी डाॅ. अम्बेडकर इसका बचाव करते थे। जब कैथरीन मेयो ने अपनी किताब में कहा कि हिन्दू धर्म में सामाजिक विषमता है, जबकि इस्लाम में भाईचारा है तो डाॅ. अम्बेडकर ने इसका खण्डन करते हुए कहा कि इस्लाम गुलामी और जातिवाद से मुक्त नहीं है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत विभाजन या पाकिस्तान’ इसी पर केन्द्रित है। उसमें तथ्यों और प्रमाणों के साथ हिन्दू और मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति का विशद व प्रमाणिक विश्लेषण है। डाॅ. अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा-‘हिन्दुओं में सामाजिक बुराईयां हैं, किन्तु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने में सक्रिय लोग भी हैं, जबकि मुस्लिम ये मानते ही नहीं कि उनमें बुराईयां हैं और इसलिए उसे दूर करने का उपाय नहीं करते।’ इस मौलिक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति ने भारत को एक भौगोलिक इकाई के रूप में निर्मित किया है। इसकी एकता उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन प्रकृति है। इस भौगोलिक एकता के अन्तर्गत अति प्राचीन समय से यहां सांस्कृतिक एकता रही है। इस सांस्कृतिक एकता ने राजनीतिक तथा जातीय विभाजन का सदैव विरोध किया है। एक व्यक्ति की भांति राष्ट्र भूतकालीन लोगों द्वारा किए गए सतत प्रयत्न, त्याग और देशभक्ति का परिणाम था। बन्धुभाव नहीं रहेगा तो समता, स्वाधीनता सब अस्तित्व विहीन हो जाएंगे।
‘अस्पृश्यों के हाथों से अगर शस्त्र नहीं निकाले गए होते तो यह देश कभी गुलाम नहीं होता।’ अस्पृश्य जाति में जन्मा मनुष्य राष्ट्र जीवन में तोड़ा गया और वह मुस्लिम आक्रमण का शिकार बन गया। देश के निर्माण में मेरा भी सहभाग होना चाहिए, ऐसा उन्हें लगता नहीं था। वैदिक कार्यों का मूल स्थान हिन्दुस्तान में ही होगा, इस बात के सबूत वैदिक साहित्य में ही प्राप्त होते हैं। अश्व वैदिक आर्यों का पसंदीदा जानवर है, लेकिन क्या यहां अश्व थे? इस तरह से आर्य बाहर से आए, यह सिद्धान्त भी धराशायी हो जाता है। हिन्दू समाज अनगिनत जातियों से बना है, यह बात सही है। यूरोपीय इतिहासकार इन जातियों को विभिन्न वंश बताते हैं, लेकिन बाबा साहेब के मत के अनुसार यह सच नहीं है। उनका मानना था कि ‘हम सभी एक संस्कृति के सूत्र में बंधे हुए हैं।’
नागपुर में दीक्षा भूमि पर बौद्ध धर्म स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा था ‘मैंने गांधी जी को वचन दिया था कि हिन्दू धर्म छोड़ते समय और नए धर्म को स्वीकार करते समय मैं इस देश की संस्कृति को कम-से-कम आहत करने वाला मार्ग चुनूंगा। आज मैं उस वचन को निभा रहा हूं। इतिहास में मुझे विध्वंसक के नाते पहचाना जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।’ उनका मानना था- धर्म की मनुष्य को रोटी जितनी ही आवश्यकता है, क्योंकि धर्म मनुष्य को आशावादी बनाता है। धर्म का काम मनुष्य और ईश्वर के बीच संबंध निश्चित करना नहीं, बल्कि मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध निश्चित करना है। धर्म का कार्य मनुष्यों के बीच के व्यवहार को निश्चित करना है। उनके अनुसार मनुष्य को नीतिवान, चरित्र सम्पन्न बनाने का काम धर्म ही कर सकता है। इस तरह से जैसे वह संविधान के शिल्पकार हैं, वैसे ही भारतीय परम्परा के महान पुरुष हैं।
हिन्दू कोड बिल का विषय जब चल रहा था, तब केवल हिन्दुओं के लिए नागरिक संहिता क्यों? मुस्लिम पर्सनल लाॅ बाबा साहब को मंजूर नहीं था, वे तो सभी के लिए समान नागरिक कानून के पक्षधर थे। उनके अनुसार पर्सनल लाॅ, मजहब पर आधारित नहीं होना चाहिए। नदी जोड़ने की अवधारणा बाबा साहेब ने 1944 में ही दे दी थी।
उनके अनुसार मानवता के इतिहास में राष्ट्रीयता एक बहुत बड़ी शक्ति रही है। यह एकत्व की भावना है, किसी वर्ग विशेष से संबंधित होना नहीं। यही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का सार है। उनके अनुसार राष्ट्र निर्माण के लिए प्रथम आवश्यकता है-सम्पन्न विरासत की स्मृति का सामान्य स्वत्व और दूसरी है वास्तविक सहमति एकसाथ विकास करने की उत्कट अभिलाषा, अविभाजित उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त निधि को सुरक्षित रखने की इच्छा। वे लिखते हैं- भारत राष्ट्र की एकता का मूल आधार संस्कृति (हिन्दू) है, जो समग्र देश में व्याप्त है। सांस्कृतिक एकता के सन्दर्भ में कोई भी राष्ट्र भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री से पृथक चुनावी प्रवर की प्राप्ति के बावजूद उन्होंने जातिगत हितों की तिलांजलि देकर गांधी के साथ 1932 में पूना समझौता किया, जिसने देश को विभीषिका एवं सामाजिक बिखराव से बचाया। बौद्ध धर्म स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा था-‘यदि मैं इस्लाम या ईसाईयत को स्वीकार करता तो यह मेरे राष्ट्रीय भाव एवं राष्ट्रवाद के साथ समझौता होता, क्योंकि दोनों ही मत-पंथों की निष्ठाएं अन्यत्र हैं।’ तभी तो वीर सावरकर ने कहा बौद्ध अम्बेडकर हिन्दू अम्बेडकर ही हैं। हकीकत यही है कि वे सदैव राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रोन्नति के लिए तत्पर और सन्नध रहे। एकबार उन्होंने कहा- मैं यह स्वीकार करता हूं कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं से मेरा विवाद है परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।
मार्क्सवादी व्यवस्था के बारे में उनका मानना था कि वह शक्ति पर आधारित होती है। इसीलिए उसे एक बंद व्यवस्था बताते हुए उन्होंने कहा मेरा कम्युनिस्टों से संबंध रखना बिलकुल संभव नहीं है। श्रममंत्री रहते हुए उन्होंने श्रमिकों के लिए कार्य के घण्टे 14 से 8 किए। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम तथा मजदूरों के कल्याण के लिए बहुत से कानून बनवाए।
भारत के दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारे को लेकर उन्होंने कहा था कि वह दिन भी आएगा, जब मुस्लिम समाज समझेगा कि एकजुट व सशक्त भारत उनके लिए कहीं बेहतर है।