जनता की अदालत में फैसला अभी बाकी है

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कुछ समय पहले अमेरिका के एक बड़े बेस बॉल खिलाड़ी जो कि वहां के लोगों के दिल में सितारा हैसियत रखते थे, उन पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप लगा। लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आभाव में वह अदालत से बरी कर दिए गए। हालांकि जज पूरी तरह आश्वस्त थे कि कत्ल उसने ही किया है। लेकिन फैसला कानून के दायरे में ही किया जाता है। अदालत या फिर कोई संवैधानिक संस्था चाहे कहीं की भी हो, विश्व में उनके द्वारा इस प्रकार के फैसले दिए जाना कोई नई या अनोखी बात नहीं है। लेकिन अदालत के इस फैसले के बाद जो अमेरिका में हुआ वो जरूर अनूठा था। कोर्ट से बाइज्जत बरी होकर ये सितारा खिलाड़ी जब अपने महलनुमा घर पहुंचे, तो उनके चौकीदार ने उन्हें घर की चाबियां देते हुए कहा कि उनके दर्जनभर सेवक अदालत के फैसले से आहत होकर त्यागपत्र दे चुके हैं और वह खुद भी केवल उन्हें ये चाबियां सौंपने के लिए ही रुका हुआ था। इतना ही नहीं जब उन्होंने अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट में टेबल बुक करनी चाही तो उन्हें मना कर दिया गया। जब वो स्वयं रेस्टोरेंट पहुंच गए जो लगभग खाली था, तो भी उन्हें टेबल नहीं दी गई।
वैसे तो यह प्रसंग पुराना है लेकिन वर्तमान चुनावी दौर में प्रासंगिक प्रतीत होता है। जिस प्रकार से आज देश का लगभग हर राजनेता और राजनीतिक दल सत्ता की चाह में नैतिक पतन की हदें पार करते जा रहे हैं वो वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन उससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण हैं इन मामलों में चुनाव आयोग के फैसले और उनका असर। चाहे धर्म अथवा जाति के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करने वाले बयान से या फिर धनबल के प्रयोग से मतदाताओं को प्रलोभन देकर जिस संविधान को बचाने के लिए चुनाव लड़ा जा रहा हो उसी संविधान की धज्जियां उड़ाते नेता हों या फिर अश्लीलता की सारी हदें पार करते आजम खान के बयान हों। चुनाव आयोग ने जो 48 से 72 घंटों तक इन नेताओं के चुनाव प्रचार करने पर प्रतिबंध लगाकर जो सख्ती दिखाई है वो कितनी असरदार रही ये तो चुनाव आयोग के इस ‘सख्त फैसले’ के तुरंत बाद नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों ने साफ कर दिया है। न सिर्फ वे बिहार की एक सभा में मुसलमानों को एकजुट होकर मतदान करने के लिए प्रेरित करते दिखे बल्कि गुजरात की सभा में तो प्रधानमंत्री पर हमले करते हुए वे भाषा की मर्यादा तक लांघ रहे थे। राजस्थान के मुख्यमंत्री देश के राष्ट्रपति के पद तक को जातिगत राजनीति में लपेटने की कोशिश करते दिख रहे हैं। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के कलाकार तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करते पाए जाते हैं। चुनावी राजनीति में जिस प्रकार के आचरण का आज देश साक्षी हो रहा है स्पष्ट है कि चुनावी आचार संहिता तो दूर की बात है व्यक्तिगत नैतिक आचरण की संहिता भी भुला दी गई है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की जगह अब सियासी दुश्मनी ने ले ली है। जिन राम मनोहर लोहिया की विरासत को आगे बढ़ाने के नाम पर ये राजनीतिक दल अपनी सियासी रोटियां सेंकते हैं, उनका कहना था कि लोकराज लोकलाज से चलता है लेकिन इन्होंने तो लोकलाज को भी ताक पर रख दिया है। ऐसे माहौल में जब नेताओं में आत्मसंयम लुप्त हो गया हो और कानून का डर न बचा हो तो राजनीतिक शुचिता को बचाने के लिए कुछ ठोस और बुनियादी कदम तो उठाने ही होंगे। तुलसीदास ने भी कहा है कि ‘भय बिन होत न प्रीत।’ आज जब राजनीतिक दल चुनावों में इस प्रकार का आचरण कर रहे हों जैसे चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था है ही नहीं तो उसे समझना चाहिए कि कानून या विधि का आधार है नैतिकता, जो दण्ड देने वाले और पाने वाले दोनों पर समान रूप से लागू होती है। इसका उद्देश्य होता है अपराध अथवा अनैतिकता का दमन, ताकि दण्ड के भय से सभी अपनी अपनी सामाजिक मर्यादाओं का पालन करें। इसका मकसद होता है व्यक्ति की सोच में सुधार ताकि आरोपी को अपनी गलती का एहसास हो और वो उसका प्रायश्चित करके एक बदले हुए व्यक्तित्व के साथ मुख्यधारा में लौटे, न कि अपने उसी आचरण को दोहराने के लिए 48 या 72 घंटों की समयावधि के खत्म होने का इंतजार करे। इसका एक प्रयोजन यह भी होता है कि ये फैसले दूसरों के लिए नजीर बनें न कि उन्हें सिद्धू बनने के लिए प्रेरित करें। इसके लिए सख़्त और कठिन फैसलों के अंतर को समझना चाहिए। इसके लिए खून के बदले खून और आंख के बदले आंख जैसे ‘बदले वाले’ फैसले नहीं बल्कि ‘बदलने वाले’ फैसले लेने की आवश्यकता होती है। विदिशा जिले में छेड़छाड़ के एक मामले में कोर्ट का फैसला ध्यान देने योग्य है। इस मामले में आरोपी ने जब परीक्षा देने के लिए जमानत की अर्जी यह कहते हुए दी कि उसका साल खराब हो जाएगा तो जज ने यह कहते हुए उसकी जमानत की अर्जी मंजूर की, कि आरोपी को सप्ताह में तीन दिन जिला अस्पताल में मरीजों की सेवा करनी होगी। इसलिए भले ही चुनाव आयोग अपनी सीमित शक्तियों की दुहाई देकर निष्पक्ष और आदर्श चुनाव कराने में अपनी बेबसी जाता रहा हो लेकिन अपनी मौजूदा शक्तियों के दायरे में भी वो राजनेताओं को अपना आचरण बदलने के लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन इस सबसे परे जिस दिन देश की जनता, जिसे लोकतंत्र का महानायक कहा जाता है, उसने अमेरिका की जनता की तरह अपना फैसला सुना दिया उस दिन शायद …।


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