चुनाव आयोग की साख पर मंडराता संकट
19 मई को अंतिम चरण के मतदान के साथ ही लोकतंत्र के महापर्व का समापन हो गया है। अब केन्द्र में किसकी सरकार बनेगी, यह 23 मई को पता चलेगा। लेकिन चुनावी प्रक्रिया के इस बेहद लंबे और उबाऊ दौर में जिस प्रकार पहली बार चुनाव आयोग की भूमिका पर शुरू से लेकर आखिर तक उंगलियां उठती रही, वह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत के लिए हरगिज सही नहीं है। बात कुछ राजनीतिक दलों या नेताओं द्वारा चुनाव आयोग की ईमानदारी और निष्पक्षता पर सवाल उठाने तक ही सीमित रहती तो मामला अलग होता किन्तु जिस प्रकार चुनावी प्रक्रिया के अंतिम चरण से ठीक पहले तीन चुनाव आयुक्तों में से एक अशोक लवासा ने ही चुनाव आयोग को कठघरे में ला खड़ा किया, उससे चुनाव आयोग की निष्पक्ष छवि को गहरा आघात लगा है। भले ही मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा बचाव की मुद्रा में दलील देते नजर आए कि किसी विषय पर आयोग के सभी तीनों सदस्यों के विचार पूरी तरह से समरूप होना अपेक्षित नहीं हैं। मतभेद की स्थिति में बहुमत से फैसला करने का ही प्रावधान है किन्तु निर्वाचन आयुक्त अशोक लवासा के इस तर्क को किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ‘आयोग द्वारा उनके असहमति के फैसलों को आयोग के आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं किया गया। ऐसे में असहमति के फैसले को रिकॉर्ड में दर्ज नहीं करने से बैठकों में उनकी उपस्थिति निरर्थक हो जाती है’। हालांकि चुनाव आयोग की नियमावली के अनुसार तीनों आयुक्तों के अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियां समान हैं और किसी भी मुद्दे पर विचारों में मतभेद होने पर बहुमत का ही फैसला मान्य होता है। मतभेद होने की स्थिति में सभी के विचारों को आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज किया जाना भी अनिवार्य है।
आयोग भले ही इसे आंतरिक मामला या आंतरिक मतभेद बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा हो, किन्तु इससे आयोग की गरिमा को जो ठेस पहुंची है, उसकी भरपाई कौन करेगा? पहले से ही चुनाव आयोग के खिलाफ मुखर तमाम विपक्षी दलों को क्या आयोग ने बैठे-बिठाये खुद ही उस गंभीर आरोप लगाने का अवसर नहीं दे दिया है? वैसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में संभवतः यह पहला ऐसा चुनाव रहा, जहां हर पल चुनाव आयोग के फैसलों पर उंगलियां उठती रहीं और उसकी विश्वसनीयता का संकट बरकरार रहा। उस पर कई अवसरों पर एकतरफा फैसला लेने के गंभीर आरोप भी लगे। फिर भी उसने कभी ऐसा प्रयास नहीं किया कि आमजन को उसकी कार्यशैली संदिग्ध न लगे। यह पहली बार देखा गया, जब तमाम राजनीतिक दलों द्वारा देशभर में इतने बड़े स्तर पर खुलकर आचार संहिता की धज्जियां उड़ाई गई और किसी भी दल को चुनाव आयोग का रत्तीभर भी डर नजर नहीं आया। चुनावों में धन-बल के बढ़ते इस्तेमाल पर अंकुश लगाना आयोग की ही जिम्मेदारी थी किन्तु चुनावी खर्च में मितव्ययिता को लेकर निर्वाचन आयोग गंभीर नहीं दिखा। अपवाद स्वरूप एकाध मामलों को छोड़ दें तो पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान कभी लगा ही नहीं कि चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता का सरासर उल्लंघन करने वालों पर कोई ठोस या कठोर कार्यवाही की गई हो। यह भी पहली बार हुआ, जब आयोग के क्रियाकलापों पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए उसकी निष्पक्षता को अदालत में चुनौती दी गई। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट को निर्वाचन आयोग को उसकी शक्तियों का एहसास कराना पड़ा।
देश की आजादी पर राष्ट्र में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने के लिए 25 जनवरी 1950 को भारतीय निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई थी और चुनाव लड़ने वाले तमाम राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों के लिए ‘आदर्श आचार संहिता’ तैयार की गई थी। उसमें स्पष्ट कहा गया कि कोई भी राजनीतिक दल या प्रत्याशी ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा, जो विभिन्न जातियों तथा धार्मिक या भाषायी समुदायों के बीच मतभेदों को बढ़ावा दे, घृणा की भावना पैदा करे या तनाव उत्पन्न करे। संविधान में यह व्यवस्था भी की गई कि निर्वाचन आयोग चुनावों के दौरान चुनाव लड़ने वाले बड़े से बड़े व्यक्ति और एक सामान्य व्यक्ति के बीच भी कोई भेदभाव नहीं करेगा। दोनों को समान संवैधानिक अवसर प्रदान करेगा। फिर भले ही केन्द्र में सत्तारूढ़ देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, चुनाव के दौरान उसकी हैसियत भी एक सामान्य प्रत्याशी के समान ही होगी। लेकिन इस बार की बेहद लंबी चुनावी प्रक्रिया के दौरान देश में हर कहीं खुलेआम ‘आदर्श आचार संहिता’ की धज्जियां उड़ती रही और आयोग ऐसे अधिकांश अवसरों पर शिकायतें मिलने के बाद भी मूकदर्शक बना रहा। निश्चित रूप से ऐसे में आयोग की कार्यशैली पर उंगलियां तो उठेंगी ही।
चुनावी प्रक्रिया के दौरान जब कुछ राजनीतिक दलों ने आयोग की भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था तो अदालत द्वारा आयोग को फटकार लगाई गई थी। तब आयोग द्वारा स्वयं के ‘अधिकारहीन’ और ‘शक्तिहीन’ होने का अदालत में बड़ा ही हास्यास्पद तर्क दिया गया था और सर्वोच्च अदालत द्वारा आयोग को उसकी शक्तियों और अधिकारों का स्मरण कराया गया था। आयोग के लिए कितना शर्मनाक पल था, जब अदालत को कहना पड़ा कि अधिकारी आयोग के अधिकारों के बारे में जानकारी लेकर उसके समक्ष पेश हों। सुप्रीम कोर्ट की फटकार के पश्चात् आयोग द्वारा आनन-फानन में चंद कड़े फैसले लेने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा टिप्पणी की गई कि ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग ‘जाग गया’ है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत उसके पास चुनावी रंग को बदरंग करने वाले नेताओं या राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार हैं। आयोग के पास कितने असीमित अधिकार और शक्तियां हैं, इसका अनुमान इस एक उदाहरण से ही बखूबी लगाया जा सकता है कि अगस्त 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने अपने 17 पृष्ठों के आदेश में दो टूक लहजे में कहा था कि सरकार जब तक देश में चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती, देश में कोई चुनाव नहीं कराया जाएगा।
लोकतंत्र की सेहत के लिए देश के तमाम राजनीतिक दलों में चुनाव आयोग का कितना खौफ होना चाहिए, यह वर्तमान चुनाव आयुक्तों को शेषन सरीखे तत्कालीन चुनाव आयुक्त से सीखना चाहिए। यह शेषन का खौफ ही था कि उस वक्त कहा जाने लगा था कि भारतीय राजनेता सिर्फ दो चीजों से ही डरते हैं, एक ईश्वर और दूसरा शेषन। शेषन के कार्यकाल से पहले ‘आदर्श आचार संहिता’ वास्तव में कागजों में ही सिमटी थी। उसे अमलीजामा पहनाकर कड़ाई से लागू कराने का कार्य किया था सर्वप्रथम टी एन शेषन ने। वो शेषन ही थे, जिन्होंने चुनाव आयोग को सर्वशक्तिसम्पन्न और स्वायत्त संवैधानिक संस्था में परिवर्तित कर चुनाव आयोग को गरिमा प्रदान की थी किन्तु अगर आज आयोग की यही गरिमा पूरी तरह से दांव पर है तो क्या उसके लिए जिम्मेदार चुनाव आयोग नहीं है। आज चुनाव आयोग भले ही अपने अधिकारों और शक्तियों का रोना रो रहा है लेकिन वास्तव में वह कितना शक्ति सम्पन्न है, इसके लिए यह जानना क्या पर्याप्त होगा कि मुख्य चुनाव आयुक्त का दर्जा देश के मुख्य न्यायाधीश के समकक्ष माना जाता है। देश में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने के लिए इससे ज्यादा और कितनी शक्तियां चाहिए निर्वाचन आयोग को? मतदान प्रक्रिया को शांतिपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से सम्पादित कराने के लिए संविधान में निर्वाचन आयोग को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं किन्तु आयोग अगर अपने इन अधिकारों का सही तरीके से उपयोग ही नहीं कर पाता है तोउसे कसूरवार क्यों नहीं कहा जाए। सवाल आयोग की निष्पक्षता या संवैधानिक संस्था के रूप में उसकी स्वायत्तता पर नहीं बल्कि सवाल उठता है उसकी क्षमता पर, जो तमाम अधिकारों के बावजूद आचार संहिता के गंभीर मामलों में भी कहीं दिखाई नहीं दी। ऐसा सिर्फ इसी चुनाव की बात नहीं है। पता नहीं क्यों निर्वाचन आयोग सरकारों की पिछलग्गू बना रहता है।
पूरी दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाला चुनाव आयोग अगर स्वयं को इतना असहाय साबित करने का प्रयास करेगा तो लोकतंत्र की उस बुनियाद का क्या होगा, जो देश में स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव कराने की आयोग की भूमिका पर ही पूरी तरह टिकी है। चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जिसके मजबूत कंधों पर शांतिपूर्वक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की अहम जिम्मेदारी है। वह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर यह कार्य सम्पन्न करा सके, इसके लिए उसे अनेक शक्तियां और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। देश की चुनाव प्रणाली में शुचिता बरकरार रखते हुए उसमें देश के हर नागरिक का भरोसा बनाए रखना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने का सबसे पहला दायित्व चुनाव आयोग का ही माना गया है, जो अपने कठोर फैसलों से निरंकुश राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों पर लगाम कसने के साथ ही अपनी निर्भीकता, निष्पक्षता और पारदर्शिता का परिचय भी दे। आजादी के बाद के इतने वर्षों के दौरान आयोग ने जिस पारदर्शी भूमिका का निर्वहन करते हुए अपनी एक साख बनाई, अगर उसी साख पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तो उन्हें दूर करना एक संवैधानिक संस्था होने के नाते केवल और केवल उसी की जिम्मेदारी है।