घोषणापत्रों में नहीं, खेत में छिपा है किसानों की समस्याओं का हल

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पिछले दो-तीन सालों से देश का किसान फिर चर्चाओं में आ गया है। चर्चा इस मायने में कि किसानों की मजबूरी को सीढ़ी बनाकर देश के करीब-करीब सभी राजनीतिक दल अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत लगा रहे हैं। किसानों की बदहाली और खेती किसानी से होने वाली आय को लेकर आज सभी राजनीतिक दल चिंतित हैं। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का दावा किया है। यह अलग बात है कि इसके लिए किये जा रहे प्रयास नाकाफी हैं। चुनाव आते ही लगभग सभी दल किसानों की ऋण माफी की बात करने लगते हैं। कोई कृषि उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, कोई अनुदान बढ़ाने या कोई किसानों को दूसरी रियायतें देने पर जोर दे रहे हैं। निरमा की साफ धुलाई के विज्ञापन की तर्ज पर राजनीतिक दल एक – दूसरे की ऋण माफी या दूसरी घोषणाओं पर तंज कसते हुए अपनी योजनाओं को अधिक किसान हितैषी बताने की जुगत में भी लगे हैं। ऋण माफी या दूसरी इसी तरह की घोषणाएं किसानों की तात्कालिक समस्या को तो हल कर देगी पर दीर्घकालीन कृषि विकास में कितनी कारगर होगी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। राजनीतिक दलों की भी यह मजबूरी है। चुनावी वैतरणी किसी वैशाखी के सहारे ही पार की जा सकती है। फिर किसान देश का सबसे बड़ा वोट बैंक है और अब यह भी लगने लगा है कि तात्कालिक लाभकारी कार्यक्रमों के माध्यम से चुनावी नैया पार की जा सकती है। आजादी के बाद देश में कृषि वैज्ञानिकों ने अपने शोध व अध्ययन के माध्यम से तेजी से कृषि उत्पादन बढ़ाने की दिशा में काम किया है। अधिक उपज देने वाली व भौगोलिक स्थिति के अनुसार जल्दी तैयार होने वाली किस्मों का विकास हुआ है। रोग प्रतिरोधक क्षमता व उर्वरा शक्ति बढ़ाने की दिशा में नये-नये प्रयोग हुए हैं। खेती-किसानी को आसान बनाने के लिए एक से एक कृषि उपकरण बाजार में आए हैं। इस सबके बावजूद हमारी खेती दिशाहीन ही रही है। इसका कारण बिना आगे-पीछे सोचे रसायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग है। रसायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति प्रभावित हुई है।
गांवों में ट्रैक्टरों की पहुंच अधिकांश किसानों तक हो गई है। हालांकि इसके पीछे सरकार की आसान ऋण योजनाएं हैं। इतना सब-कुछ होने के बाद किसानों की आत्महत्या या किसानों की बदहाली आज भी मुद्दा बना हुआ है तो यह अपने आप में गंभीर हो जाता है। किसानों की बदहाली के इन्हीं कारणों का हल ढूंढते-ढूंढते एकला चलो की तर्ज पर देश के कोने-कोने के प्रगतिशील किसान अपनी सीमित संसाधनों से विकास की नई इबारत लिखने में लगे हैं। दूसरी ओर, देश के गिने-चुने किसान हितचिंतक इन प्रगतिशील किसानों को उपयुक्त मंच दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। इन गुदड़ी के लाल किसानों को सामने लाकर दूसरे किसानों को इनसे प्रेरणा लेने के लिए उत्साहित-प्रोत्साहित करने में लगे हैं। पिछले कई दशकों से कृषि वैज्ञानिकों की आवाज बने जाने-माने लेखक डॉ. महेन्द्र मधुप की अन्नदाताओं को समर्पित चौथी पुस्तक सामने आई है जिसमें अपने बलबूते पर खेती-किसानी को आसान व लाभदायी बनाने में जुटे किसानों को पहचान दिलाने का सार्थक प्रयास किया गया है। डॉ. महेन्द्र मधुप ने अपनी पुस्तक ‘नवोन्मेषक किसान’ में देश के अलग-अलग कोनों में तपस्यारत किसानों की शौर्यगाथा को पिरोया है। कश्मीर का किसान कहता है कि समस्या का समाधान गोली नहीं, कृषि को सरल बनाने में छिपा है तो कई लोग ऑर्गेनिक खेती की बात करते हैं। कृषि वैज्ञानिक रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से चिंतित हैं। यही कारण है कि सभी लोग ऑर्गेनिक खेती को श्रेयष्कर मानने लगे हैं। नार्थ-ईस्ट को तो ऑर्गेनिक खेती का केन्द्र ही बनाया जा रहा है। इसी तरह से देश के कई हिस्सों में ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए पायलट प्रोजेक्ट के रुप में काम होने लगा है। परंपरागत खेती को प्रोत्साहित किया जाने लगा है। पशुधन को खेती का सहायक व आय बढ़ाने का माध्यम बनाया जाने लगा है। हमारी पुरातन कृषि व्यवस्था में खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। आज एक बार फिर पशुपालन को बढ़ावा देने की बात की जा रही है। सवाल यह है कि किसानों की आय बढ़ाने के साथ ही उनके जीवन स्तर में किस तरह से सुधार लाया जाए कि वे भी विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन सकें। डॉ. मधुप ने अन्वेषक किसान के माध्यम से देश के विभिन्न प्रांतों में एकल प्रयासों से खेती की नई इबारत लिखते अन्नदाताओं को आगे लाने का सार्थक प्रयास किया है। इस दिशा में सरकार, गैरसरकारी संगठनों और खेती से जुड़े लोगों को एक साथ आगे आना होगा जिससे खेत को प्रयोगशाला बनाकर प्रयोगधर्मी किसानों की मेहनत का लाभ दूसरे किसानों तक पहुंच सके।


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