कश्मीर के अलगाववादियों को साफ संदेश

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करीब तीन सप्ताह पहले जमात-ए-इस्लामी और अब जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगाकर केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के पैरोकार बने और पाकिस्तान की भाषा बोलने वाले अलगाववादियों को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि घाटी में उनकी मनमानी करने के दिन लद गए। हालांकि विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार अलगाववादियों पर यह सख्ती लोकसभा चुनावों में लाभ उठाने की नीयत से कर रही है। भले ही ऐसा हो, फिर भी आतंक के खिलाफ ऐसा कठोर रुख अपनाने के लिए सरकार की सराहना तो होगी ही क्योंकि कश्मीर आतंकी घटनाओं से दशकों से कराह रहा है। चुनाव से पहले भी अबतक कोई भी सरकार आतंकियों और उनके सरपरस्तों पर शिकंजा कसने की ऐसी हिम्मत नहीं दिखा सकी। पुलवामा हमले के बाद घाटी के कुछ ऐसे प्रमुख अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लेने का अहम फैसला भी लिया गया था, जिनकी सुरक्षा में 100 से भी ज्यादा सरकारी गाड़ियां और 1000 से ज्यादा पुलिसकर्मी लगे हुए थे। उनकी सुरक्षा पर सरकारी खजाने से प्रतिवर्ष अरबों रुपये लुटाये जा रहे थे।
यह अलग बात है कि कश्मीर में आतंक की फैक्टरी को हर प्रकार का समर्थन तथा सहयोग देने वाले अलगाववादियों पर जब भी शिकंजा कसने की कोशिशें की जाती हैं, हर बार महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला जैसे लोग खुलकर इनके पक्ष में आवाज बुलंद करते नजर आते हैं। जेकेएलएफ पर पाबंदी के बाद भी महबूबा ने बगावती तेवर दिखाते हुए चेतावनी भरे शब्दों में कहा है कि ऐसे कदम से कश्मीर, खुली हवा में एक जेल जैसा बन जाएगा। इससे पहले जब जमात-ए-इस्लामी पर आतंकवाद निरोधक कानून के तहत 5 साल का प्रतिबंध लगाया गया था, तब भी महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला सरीखे जम्मू-कश्मीर के बड़े नेताओं ने उसका खुलकर विरोध किया था। हैरानी यह देखकर होती है कि एक ओर जहां चौतरफा दबाव के चलते पाकिस्तान अपने यहां ऐसे ही कुछ संगठनों पर प्रतिबंध लगाने पर विवश हो रहा है, वहीं हमारे यहां ऐसे किसी संगठन पर प्रतिबंध लगने पर हमारी ही धरती पर पलने वाले तत्व इस प्रकार के विरोध की राजनीति कर रहे हैं।
दरअसल, आतंक का पर्याय बने पत्थरबाजों के पक्ष में आवाज बुलंद करना, अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस लिए जाने पर उसका विरोध करना और अब जमात-ए-इस्लामी या जेकेएलएफ सरीखे अलगाववादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाए जाने पर उसका विरोध करना, यही इनकी राजनीति का वास्तविक घृणित चेहरा है। जम्मू-कश्मीर के सरपरस्त बनते रहे ऐसे नेता आतंकियों के सरपरस्त पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रति वफादारी दिखाते रहे हैं। इसलिए आज समय की मांग यही है कि ऐसे नेताओं का राष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार किया जाए। उमर और महबूबा जैसे जो लोग जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध का विरोध करते नजर आए, वे यह भूल गए कि 1975 में इस संगठन पर उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला ने स्वयं प्रतिबंध लगाया था। 1990 में इसपर केन्द्र सरकार में गृहमंत्री रहते महबूबा के वालिद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी पाबंदी लगाई थी।
एक ओर जहां जमात-ए-इस्लामी राज्य में अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। जिसका प्रमुख उद्देश्य राजनीति में भागीदारी करते हुए राज्य में इस्लामी शासन की स्थापना करना माना जाता है, वहीं केन्द्रीय गृह सचिव राजीव गाबा के अनुसार यासीन मलिक का संगठन जेकेएलएफ अलगाववादी सिद्धांतों पर चलने वाला प्रमुख संगठन है, जो घाटी में अलगाववादी मानसिकता फैला रहा है। 1998 से घाटी में अलगाववादी गतिविधियों तथा हिंसक घटनाओं में यह सबसे आगे रहा है। इस संगठन के खिलाफ जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा 37 केस दर्ज किए गए हैं जबकि सीबीआई द्वारा भी भारतीय वायुसेना के चार लोगों की हत्या से जुड़े इस पर दो केस दर्ज हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) द्वारा भी जेकेएलएफ के खिलाफ एक केस दर्ज किया गया है, जिसकी जांच चल रही है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा भी टेरर फंडिंग के सिलसिले में जेकेएलएफ नेताओं सहित कई अन्य अलगाववादी नेताओं पर शिकंजा कसा जा रहा है।
इसके बावजूद अगर महबूबा तर्क देती हैं कि जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक बहुत साल पहले ही कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए हिंसा का रास्ता त्याग चुका था तो उसकी सियासत के निहितार्थ समझना कठिन नहीं है। इस बात के तमाम सबूत मौजूद हैं कि जेकेएलएफ किस प्रकार जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को समर्थन देता रहा है। किस प्रकार आतंकवादियों का वित्तीय पोषण करता रहा है। जेकेएलएफ घाटी में खून-खराबे के लिए कुख्यात है और यासीन मलिक ऐसा शख्स है, जो सही मायने में भारत की सरजमीं पर तमाम सरकारी सुविधाएं प्राप्त कर सरकारी रहमोकरम पर पलता रहा पाकिस्तानी मोहरा है, जिसकी आस्था शुरू से ही पाकिस्तान से जुड़ी रही है। कुछ साल पहले तक गुपचुप तरीके से वह पाकिस्तानी नेताओं से मिलता या बात करता था किन्तु पिछले कुछ वर्षों से वह खुलेआम पाकिस्तान की हिमायत करता रहा है। यह वही यासीन मलिक है, जिसकी 1990 में हिन्दुओं का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर से बेदखल करने के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। यह वही यासीन मलिक है, जिसने भारतीय संसद पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के खिलाफ और कहीं नहीं बल्कि इस्लामाबाद में बैठकर 24 घंटे का अनशन किया था और उस अनशन में उसके साथ 2006 के मुम्बई हमले का मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा का संस्थापक हाफीज सईद भी शामिल था। यह वही यासीन मलिक है, जिसने उस अनशन के दौरान संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के भारत के फैसले को एक बेगुनाह शख्स को फांसी पर चढ़ाए जाने के रूप में प्रचारित करते हुए उसे कानून और संविधान का कत्ल बताया था। यासीन खुद स्वीकार चुका है कि 1987 में उसने 4 भारतीय सुरक्षाकर्मियों की हत्या की थी, जिसके लिए उसे जेल में भी रहना पड़ा था। 2002 में उसे ‘पोटा’ कानून के तहत भी गिरफ्तार किया गया था।
अगर ऐसे शख्स का महबूबा मुफ्ती सरीखी पूर्व मुख्यमंत्री यह कहकर बचाव करती हैं कि यासीन ने कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए हिंसा का रास्ता बहुत पहले ही त्याग दिया था तो यासीन सरीखे अलगाववादियों और पाकिस्तानी मोहरों तथा महबूबा में अंतर करना कठिन नहीं है। ऐसे ही लोगों के कारण देश में अफजल गुरु जैसे आतंकी जन्म लेते हैं और बेखौफ फलते-फूलते हुए दहशत का पर्याय बनते हैं। घाटी में इस प्रकार के हालात को देखते हुए आज समय की सबसे बड़ी मांग यही है कि आतंकियों और पत्थरबाजों के परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मददगार बनते रहे अलगाववादियों को हर हाल में कुचलने के लिए उनकी तमाम गतिविधियों पर लगाम लगानी ही होगी।


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