अवध के किसानों की आवाज दबाने का कुचक्र था मुंशीगंज गोलीकांड
रायबरेली,7 जनवरी (हि.स.)। 7 जनवरी 1921 को किसानों पर हुआ अत्याचार दमन की पराकाष्ठा थी| सैकड़ों निहत्थे किसानों को गोलियों से भून दिया गया था। इसमें करीब साढ़े तीन सौ किसानों की जान गई थी और हजारों घायल हुए थे।गणेश शंकर विद्यार्थी ने इसे दूसरा जलियांवाला बाग की संज्ञा देते हुए अंग्रेजों की साजिश कहा था। कई इतिहासकारों ने भी इस घटना को किसानों की आवाज को बंद करने के लिए अंग्रेजों द्वारा की गई एक योजनाबद्ध नीति बताया है। जमींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ अवध के जिलों में खासा आक्रोश था। जमींदार लगान वसूलने के लिए किसानों पर अत्याचार करते थे| इस कार्य में उन्हें अंग्रेजों का लगातार संरक्षण मिलता था। दूसरी तरफ सुविधाओं के अभाव व अत्याचारों से परेशान किसान बेबस था। ऐसी परिस्थिति में बाबा रामचंद्र ने अवध के जिलों में किसानों का एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। जगह- जगह जमींदारों की घेराबंदी हो रही थी। गांव-गांव में किसान सभाएं गठित करके बाबा रामचंद्र किसानों को जाग्रत कर रहे थे। अवध के जिलों में ‘सीताराम-सीताराम’ धार्मिक शब्द न होकर किसानों का एक हथियार बन चुका था। प्रतापगढ़ से निकली यह आवाज रायबरेली में भी तेजी से गूंज रही थी। किसानों के आंदोलन ने रायबरेली में अपना व्यापक प्रभाव बना लिया था। गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप में रायबरेली के किसान आंदोलन पर काफी विस्तार से लिखा। संभवतः इसी कारण आजादी के असहयोग आंदोलन सहित अन्य आंदोलनों के लिए रायबरेली को संयुक्त प्रान्त में नेतृत्व करने का मौका मिला।अंग्रेज इससे परेशान थे| वह किसी भी तरह इस आंदोलन की कमर तोड़ना चाहते थे। यह आंदोलन आजादी के लिए आधार का काम कर रहा था। इतिहासकारों का मत है कि मुंशीगंज गोलीकांड एक साजिश थी| यह केवल किसानों की आवाज बंद करने के लिए दमन की चरम सीमा थी। सर्वोदयी नेता और लेखक रविन्द्र सिंह के अनुसार विशुद्ध शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे किसानों पर गोली चलाई गई थी, जबकि एक भी शासकीय अधिकारी या सिपाही को खरोंच तक नहीं आई थी। रायबरेली जिले के चंदनिहा में किसान शान्ति से जमींदार के खिलाफ आंदोलित थे| बावजूद इसके अंग्रेजों ने किसान नेता अमोल शर्मा और बाबा जानकी दास को न केवल गिरफ्तार किया बल्की आनन-फानन में सजा सुनाते हुए लखनऊ जेल में भी शिफ़्ट कर दिया। इसके बाद 7 जनवरी को मुंशीगंज के साईं पुल पर किसानों को रोक कर उन पर फायरिंग की गई। किसानों से मिलने आये पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी मिलने नहीं दिया गया। इससे साबित होता है कि किसानों को दमन करने के हर उपाय किये गए थे। किसानों के इस बलिदान ने आजादी के आंदोलनों के लिए संजीवनी का काम किया| अंग्रेजों के खिलाफ न केवल रायबरेली बल्कि अवध के अन्य जिलों के किसानों ने एकजुट होकर बिगुल फूंक दिया जो देश की आजादी में मील का पत्थर साबित हुआ।